इस भीड़ इस शहर से

तंग हुआ इस ज़िम्मेदारी से, इस बोझ से इस डर से
इस आह इस कमजोरी इस भीड़ इस शहर से

मैं चाहता था उड़ना पर पैरों मे थी जंजीरें
मुझ से नाराज़ थी हाथों की कुछ लकीरें
चल पड़ा आज़ादी ढूँढने अपने घर से
इस आह इस कमजोरी इस भीड़ इस शहर से

चीख पुकारों से जब मेरे कान गूँजते थे
दिल मे गुस्से के कुछ गुबार फूटते थे
कुछ सपने टूटते थे आँखों मे जर्जर से
इस आह इस कमजोरी इस भीड़ इस शहर से

जा रहा था पर कोई बात रह गयी थी
ज़िंदगी मुझ से कुछ राज़ कह गयी थी
कुछ तो था जिस को नज़र अंदाज़ कर रहा था
मैं था प्यासा पर दरिया मेरे पास बह रहा था

एक बच्चे की हंसी मे कुछ सुकून मिल गया था
जैसे प्यासे खेत को मानसून मिल गया था
एक बूढ़े को रास्ता बस पार ही कराया
सारे जहां की दौलत को जैसे मेने पाया
साथ बैठ के भूखे को रोटी जब खिलाई
उसके आंसुओं मे मेने सारी खुशी पाई
दिल को मिली एक उम्मीद इस नहर से
इस राह इस भरोसे इसी भीड़ इस शहर से

मेने रुक के दो पल सोचा मैं क्या खो रहा था
जो है उसे छोड़ कर जो न है पर रो रहा था
मुझे छोटा घर कभी अच्छा नहीं लगा था
मैं मिला उस से जिसे घर ही नहीं मिला था
बड़ी खुशी का इंतज़ार मैं करता ही आया
छोटी छोटी खुशियों को समेट नहीं पाया
फूल ज्यादा ही मिले थे इन काँटों भरी डगर से
इस राह इस भरोसे इसी भीड़ इस शहर से

मेने सोचा उड़ती पतंग को डोर रोकती है
काट के डोर को देखा पतंग कहा टिकती है
गम को भुला के जब सीखा जो मुस्कुराना
कुछ कोहरा हट गया था दिखने लगा ज़माना
हुई ज़िंदगी शुरू नए ही एक सफर से
इस राह इस भरोसे इसी भीड़ इस शहर से

प्रणय

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