हर्ज़ क्या है !

दिल में है एक दर्द पर ये दर्द क्या है
कोई हम को ये बता दे मर्ज़ क्या है

गर्म सांसों से कहा अलविदा उसने
ये पता ना, देता सुकून को सर्द क्या है

एक वो थी, एक है ये जिंदगी
शिकवा मिली दोनों से तो फिर फर्क क्या है

न वादा ना कसम कोई कभी उसने निभाई
ना वो जान पाई कि वफ़ा का फ़र्ज़ क्या है

न कोई प्यार करता है किसी मतलब की खातिर
न कोई पूछता है कि बता दे शर्त क्या है

बंधन दिलों का एक बार जो जुड़ गया तो
यूँ तोड़ कर फिर जोड़ने का तर्ज़ क्या है

क्या जान पाया कोई इश्क के उसूलों को
आखिर किताब-ए-मोहब्बत में दर्ज क्या है

हां छोड़ कर गयी थी वो ही तो एक दिन
फिर बताओ तुम पर कोई क़र्ज़ क्या है

भूल कर तुम को अगर वो खुश बहुत है
तुम भी लगा लो कहकहे यूँ हर्ज़ क्या है

प्रणय

4 responses to “हर्ज़ क्या है !”

  1. भूल कर तुम को अगर वो खुश बहुत है
    तुम भी लगा लो कहकहे यूँ हर्ज़ क्या है…बस यही तो हो न सका,
    सुन्दर रचना…

  2. bahut khoob…specially like “क्या जान पाया कोई इश्क के उसूलों को
    आखिर किताब-ए-मोहब्बत में दर्ज क्या है”

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